अनुच्छेद 19 बनाम अनुच्छेद 21


संदर्भ – भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने ऑनलाइन सामग्री को रेगुलेट करने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि “यदि अनुच्छेद 19 एवं अनुच्छेद 21 के बीच प्रतिस्पर्धा होती है तो अनुच्छेद 21 को अनुच्छेद 19 पर हावी होना होगा ।


• न्यायालय ने कहा कि ऑनलाइन सामग्री के रेगुलेशन के लिए प्रस्तावित तंत्र संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए, जिसमें स्वतंत्रता और अधिकारो और कर्तव्यों के     बीच संतुलन स्थापित हो ।
• उपरोक्त टिप्पणी जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बगाची की पीठ ने हास्य कलाकारो और पॉडकास्टरो से संबंधित याचिका पर सुनवाई के दौरान की ।

 

अनुच्छेद19

  • भारतीय संविधान के भाग-3 में मूल अधिकारो का वर्णन किया गया है , जिसके अंतर्गत अनुच्छेद 19 के तहत वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रावधान किया गया है ।
  • वाक् एवं अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता के तहत प्रेस की स्वतंत्रता,विज्ञापन की स्वतंत्रता ,चुप रहने की स्वतंत्रता , धरना प्रदर्शन करने की स्वंत्रता आदि अधिकार प्रदान किए गए है ।
  • अनुच्छेद 19 के अंतर्गत प्राप्त वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार पूर्ण नहीं है क्योंकि इसे भारत की संप्रभुता एवं अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यो के साथ मित्रवत संबंध , न्यायालय की अवमानना, मानहानि, नैतिकता, लोक व्यवस्था एवं अपराध उद्दीपन के आधार पर सीमित किया जा सकता है ।

 

अनुच्छेद21 प्राण व दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार

  • किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना प्राण व दैहिक स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता ।
  • ⁠न्यायपालिका ने ए.के. गोपालन बनाम स्टेट ऑफ़ मद्रास केस1950 में अनुच्छेद 21 की संकीर्ण व्याख्या करते हुए कहा कि विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ से तात्पर्य है कि न्यायपालिका केवल कार्यपालिका के स्वेच्छाचारी कार्यों की समीक्षा कर सकती है जबकि विधायिका के स्वेच्छाचारी कार्यो की समीक्षा नहीं कर सकती है
  • न्यायपालिका में प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार की भी संकीर्ण व्याख्या की तथा माना कि जीवन के अधिकार का अर्थ है जीवित रहना और बंदी नहीं बनाया जाना ।
  • 1978 में मेनका गांधी वाद में न्यायपालिका ने अपने पूर्ववर्ती निर्णय को पलटते हुए अनुच्छेद 21 की व्यापक व्याख्या की तथा विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को विधि की सम्यक् प्रक्रिया के अर्थ में माना।
  • ⁠जिसके अनुसार न्यायपालिका , कार्यपालिका एवं विधायिका दोनों के स्वेच्छाचारी कार्यों की समीक्षा कर सकती है ।
  • ⁠न्यायालय ने जीवन के अधिकार की भी व्यापक व्याख्या की और माना की केवल जीवित रहना या श्वास लेना जीवन नहीं है , पशुवत जीवन जीने को जीवन नहीं कहा जा सकता ।
  • जीवन का अर्थ है मानवीय गरिमा से युक्त जीवन, संपूर्ण गुणवत्तापूर्ण, मूल्यवान,अर्थवान जीवन होना चाहिए ।

 

• यद्यपि अनुच्छेद 14 , अनुच्छेद 19 एवं अनुच्छेद 21 को मूल अधिकारो के स्वर्णिम त्रिभुज की संज्ञा दी जाती है अर्थात् अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 एक-दूसरे से अलग नहीं है परंतु फिर भी यदि अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 में प्रतिस्पर्धा होती है तो न्यायालय ने नवीनतम टिप्पणी में अनुच्छेद 21 की प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता को अनुच्छेद 19 में वर्णित वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर वरीयता प्रदान की है ।

SOURCE – Dainik Jagaran + SBA content

FOLLOW US