खबरों में :- सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की प्रस्तावना से समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों को हटाने की याचिका खारिज।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की बेंच ने संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा जोड़े गए समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों को हटाने संबंधी याचिका खारिज कर दी।
बेंच के अनुसार समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्द भारतीय लोकतंत्र की मूलभूत विशेषताओं को व्यक्त करते हैं और संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा हैं।
इस निर्णय में मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि भारतीय के संदर्भ में समाजवाद शब्द का अर्थ “_कल्याणकारी राज्य से है जिसे नागरिकों के कल्याण के लिए खड़ा होना चाहिए और सभी को समान अवसर प्रदान करने चाहिए _”।
सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी व अन्य की ओर से दायर याचिका में कहा गया था कि संविधान की प्रस्तावना को संशोधित या निरस्त नहीं किया जा सकता, इसलिए 42वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा जोड़े गए समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों को हटाया जाना चाहिए। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति में प्रस्तावना भी शामिल है और प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है।
उल्लेखनीय है कि एस आर बोम्मई केस 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने पंथनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना था। साथ ही न्यायाधीशों ने पंथनिरपेक्षता को “सभी नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता और राज्य द्वारा सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार” के रूप में परिभाषित किया था।
पृष्ठभूमि:-
भारतीय न्यायपालिका द्वारा केशवानंदभारती वाद 1973 में मूल ढांचे का सिद्धांत संसद की संशोधन शक्तियों पर सीमा लगाने के लिए पेश किया था, ताकि संसद द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत अपनी ‘संविधान शक्ति’ के प्रयोग में ‘संविधान के मूल ढांचे’ में संशोधन न किया जा सके।
1976 के 42वें संशोधन अधिनियम, जिसे “मिनी-संविधान” के रूप में भी जाना जाता है, ने संविधान में कई बदलाव किए, जिसमें प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता जैसे शब्द जोड़े गए।